आपदा के बाद की सावधानियां : सुरेश भाई

नेशनल एक्सप्रेस डिजिटल डेस्क
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उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर में आयी भीषण आपदा ने हिमालय और उसकी नदियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। जिसके कारण प्राकृतिक और मानवीय आपदा दोनों चर्चा के विषय बन गये हैं।

उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर में आयी भीषण आपदा ने हिमालय और उसकी नदियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। जिसके कारण प्राकृतिक और मानवीय आपदा दोनों चर्चा के विषय बन गये हैं। मौसम वैज्ञानिक संवेदनशील स्थानों पर रह रहे लोगों के बारे में सचेत भी कर रहे हैं। उत्तराखंड में धराली, थराली, ऋषि गंगा, छेना गाड़, नंदनगर, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग और कुमाऊं मंडल में सन् 2023 से लगातार आ रही आपदाओं ने भविष्य में सचेत रहने की चेतावनी दी है। इसके बावजूद भी हिमालयी नदियों के किनारे और ग्लेशियरों, झीलों के मुहाने पर लोग बड़ी मात्रा में जमा हो रहे हैं। वहां पर बन रही बहु मंजिली इमारतें, पर्यटन, चौड़ी सड़कें और उसके निर्माण के लिए वनों का कटान आदि कभी भी भीषण तबाही के कारण बन सकते हैं।

हिमालय क्षेत्र में अधिकांश आपदा का कारण चौड़ी सड़कें हैं। यहां के ऊंचे, सीधे खड़े पहाड़ों से गुजरने वाली सड़क अधिकतम 5.5-6 मीटर से अधिक नहीं हो सकती है। जहां इतनी कम चौड़ाई की सड़क बनी हुई है वहां भूस्खलन का खतरा न्यूनतम हुआ है। 

वनों में आग के कारण वनस्पतियां जलने के बाद मिट्टी कमजोर पड़ जाती है। इसके बावजूद भी वनों का कटान होता है। जिसके कारण हिमाचल में बाढ़ के कारण बड़ी मात्रा में नदियों में लकड़ी बहकर आयी। यही स्थिति उत्तराखंड की भागीरथी, अलकनंदा और अन्य सहायक नदियों में भी देखी गई है। देहरादून और हरिद्वार जैसे मैदानी क्षेत्र की नदियों में आये जल प्रलय से जो भारी नुकसान हुआ है। वह नदियों के किनारे बड़ी मात्रा में अतिक्रमण, खनन का परिणाम है। बहु मंजली इमारतों ने जल निकासी की व्यवस्था को अवरुद्ध कर रखा है। जहां-जहां ऑल वेदर रोड बन गयी है वहां भी जल निकासी की व्यवस्था नहीं है। इस भीषण आपदा के बाद 15 सितंबर 2025 को देहरादून में हिमालयी आपदाः “गंगा और यमुना का विकास या विनाश“ के विषय पर एक राष्ट्रीय संवाद का आयोजन किया गया है। जिसमें मुख्य वक्ता जल पुरुष राजेंद्र सिंह जी रहे। जिसमें महसूस किया गया कि हिमालय की संवेदनशीलता के सामने मौजूदा विकास अनुकूल नहीं है। उत्तराखंड की आपदा के दौरान जो स्थिति बनी है उसको ध्यान में रखते हुए आपदा न्यूनीकरण हेतु महत्त्वपूर्ण बिंदु सुझाये गये हैं।जिसे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और केंद्रीय राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय, केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय आदि को सौंपा जा रहा है।जिसमें मांग की जा रही है कि आपदा से सबक लेने के बाद यमुनोत्री और गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर भविष्य में सड़क सुधारीकरण से निकलने वाले मलवे को यमुना और भागीरथी में न डाला जाए। डंपिंग जोन बनाकर मलवा का निस्तारण हो और इसके ऊपर पौधों का रोपण किया जाए। सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर से अधिकतम 6 मीटर तक रखी जाए।

गंगोत्री राजमार्ग पर झाला से भैरों घाटी तक देवदार के हरे पेड़ों का कटान रोका जाए। भागीरथी इको सेंसेटिव जोन-2012 की शर्तें लागू हो। यहां के छोटे और सीमांत किसानों के जीवन एवं आजीविका संरक्षण के लिए जलवायु अनुकूल प्लानिंग का सुझाव बहुत पहले से ही फाइलों में पड़ा है। ग्लेशियरों, झीलों की बदलती स्थिति को ध्यान में रखकर इसके आसपास की जैव विविधता संरक्षण के लिए जलवायु कार्य योजना बनाने की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे।

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नदियों के उद्गम से 150 किलोमीटर आगे तक बड़े निर्माण कार्य इसलिए नहीं होने चाहिए कि यहां पर बाढ़, भूकंप और भूस्खलन की संभावनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही है। इसलिए यहां पर छोटे-छोटे निर्माण कार्य जैसे- मजबूत सड़कें, जल स्रोतों का संरक्षण, वृक्षारोपण, जल स्वच्छता, जल निकासी आदि की आवश्यकता है। जिससे स्थानीय महिलाओं और युवकों को रोजगार भी मिलेगा। अंधाधुंध पर्यटन के नाम पर बहु मंजली इमारतें, निर्माण कार्यों में प्रयोग की गयी जेसीबी और पोकलैंड मशीनों ने हिमालय की मिट्टी, जंगल जैसे बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाया है। हिमालय की धरती जो भूकंप से कांप रही है उसे और अधिक संवेदनशील बनाया है। प्लास्टिक कूड़ा-कचरा का प्रबंधन हो, उसे पवित्र गंगाजल में जाने से रोकना पड़ेगा। 

हिमालय में विकास कार्य के लिए पृथक मॉडल की आवश्यकता है अर्थात् एक “हिमालय नीति“ बननी चाहिए। इसके लिए “हिमालय लोक नीति“ में दिए गए सुझाव को ध्यान में रखा जाए। तीर्थ यात्री व्यक्तिगत वाहन की जगह सरकारी वाहन का भी उपयोग करे। हवाई उड़ानों को नियंत्रित किया जाए। इससे बढ़ते ब्लैक कार्बन के खतरे को कम किया जा सकता है।

नदियों, गाड़-गदेरों के मुहाने पर बन रही बस्तियों के निर्माण पर रोक लगे। सुरंग आधारित परियोजनाओं को बहुत सीमित किया जाए। क्योंकि सुरंग के ऊपर जो गांव आ रहे हैं वहां मकानों पर दरारें पड़ रही है। जल स्रोत सूख रहे हैं। ऋषिकेश-कर्ण प्रयाग रेल लाइन की सुरंग के ऊपर बसे हुए लगभग 30 गांव के मकानों पर दरारें पड़ी हुई है। क्योंकि वहां भारी विस्फोटों के कारण सुरंग का निर्माण जिस तरह से चल रहा है। उसने हिमालय क्षेत्र में एक कृत्रिम भूकंप जैसी स्थिति बना रखी है। सूक्ष्म एवं छोटी जल विद्युत के निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे।

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित बुग्यालों में मानवीय आवाजाही को नियंत्रित किया जाय। अगस्त 2025 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपदा प्रभावित विशेष कर हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर के बारे में दिये गये आदेशों का शब्दशः पालन हो। ताकि हिमालय वासियों को सुरक्षा मिल सके। जरूरी है कि नदियों, ग्लेशियर के बारे में किए गए अध्ययन रिपोर्ट का पालन हो।आपदा प्रभावित क्षेत्र में तकनीकी एवं वैज्ञानिक संस्थानों से अध्ययन करवाया जाए और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक हो। इसके साथ ही मौसम विभाग द्वारा दी जा रही चेतावनियों को गंभीरता से लिया जाए। यदि वे किसी प्रभावित क्षेत्र के बारे में संभावित खतरे से अवगत करा रहे हैं तो वहां पर लोगों को तत्काल ही सूचित किया जाना चाहिए ताकि लोग स्वयं बच सके। इसके लिए जरूरी है कि राज्य के स्वतंत्र वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक टीम बनाकर समय-समय पर उनके सुझाव लिए जायें। जो राज और समाज के बीच में एक कड़ी का काम भी कर सकते हैं। 

आपदा में क्षतिग्रस्त भवन और मृतकों के आश्रितों के लिए मुआवजा राशि बहुत ही कम है। जिसे 10-10 लाख रुपए तक बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही कृषि योग्य जमीन को होने वाले नुकसान का मुआवजा उत्तराखंड जैसे हिमालय राज्य में जहां छोटे और सीमांत किसान है। उन्हें हेक्टेयर के रूप में भुगतान किया जाता है जो रुपए 200 से 5000 तक ही मिल पाता है। इसलिए लोगों के जीविका के साधन आपदा के कारण नष्ट होने पर उन्हें प्रति नाली भूमि दर निर्धारित करके पर्याप्त राशि मिलनी चाहिए। ताकि वे दूसरे स्थान पर अपनी जमीन की वापसी कर सकें। 

(लेखक, पर्यावरण सामाजिक कार्यकर्ता)