शहरी इश्क़
इश्क़ अब शहर हो चला है, और उसे ठहरने का वक़्त नहीं है।
इश्क़ अब शहर हो चला है!
कभी वो बस में सफ़र करते हुए
बैठता है बगल वाली सीट में,
कोई नग़्मा गुनगुनाना शुरू ही किया होता है,
कि स्टॉप आ जाता है
और वो उतर जाता है!
कभी वो लोकल ट्रेन में
झांकता है बगल वाले लेडीज कोच से
कि अगले स्टेशन पर
भीड़ के पीछे छुप जाता है,
नज़र नहीं आता है!
कभी मरीन ड्राइव पर घूमते हुए
वो अचानक टकरा जाता है,
दो क़दम पीछे मुड़कर देखता है,
नज़रें मिलाता है,
पर कुछ है कि छूट जाता है!
कभी वो साँस लेने के लिए
तरसता है कबूतर खाने जैसे
एक कमरे के मकाँ में,
कभी वो भीड़ में धक्का खाते हुए
दफ़्तर और घर के चक्कर
लगाते-लगाते थक जाता है,
कभी वो कौए की तरह
कांव-कांव ही करता रह जाता है-
आखिर और परिंदों की तरह उड़ने का
नीला आसमान अब खो चुका है!
इश्क़ अब शहर हो चला है,
और उसे ठहरने का वक़्त नहीं है-
वो दौड़ते-दौड़ते दम तोड़ता हुआ
अक्सर देखा जाता है!
इश्क़ अब शहर हो चला है!
- नीलम सक्सेना

