भविष्य की आहट
डा. रवीन्द्र अरजरिया की कलम से
आक्रान्ता के नाम पर खंजर भौंपने की चाल
जीवन के विभिन्न सोपानों को सुव्यवस्थित करने हेतु समूची दुनिया में देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप अनुशासन निर्धारित किये गये थे। इन्हीं अनुशासनों ने मान्यताओं, रीतियों और परम्पराओं के रास्ते आगे बढते हुए रूढियों का रूप ले लिया। क्षेत्र विशेष के चालाक लोगों ने विलासता भरी स्वार्थपूर्ति हेतु रूढियों को अन्धविश्वास में बदला और भय दिखाकर कट्टरता की स्थापना कर दी।
स्थान विशेष से निकल कर समूचे संसार में जीवकोपार्जन के लिए पहुंचे लोगों ने अपने साथ अपनी क्षेत्रीय मान्यताओं को भी विस्तार देना प्रारम्भ किया। कहीं प्यार से तो कहीं भय दिखाकर, कहीं लालच देकर तो कहीं जबरजस्ती, कहीं बलपूर्वक तो कहीं मनगढन्त चमत्कारों की कहानियां सुनाकर, कहीं तर्क-वितर्क-कुतर्क का सहारा लेकर तो कहीं हत्या की धमकी देकर इस तरह के प्रयास होते रहे। आक्रान्ताओं के जुल्मों से नष्ट हुई क्षेत्रों की सांस्कृतिक विरासत ने समय मिलते ही अपनी पुनर्स्थापना के प्रयास शुरू कर दिये जिसे आक्रान्ताओं के गुलामों की पीढियों ने थोपी गई पद्धति के पक्ष में विरोध करना प्रारम्भ कर दिया।
षडयंत्र के तहत कट्टरता की थाथी को विस्तार देने में लगी मानवता विरोधी जमातों ने थोपी गई संस्कृति, बाध्यता के कारण स्वीकारी गई मान्यताओं और मनगढन्त व्याख्याओं को प्रचारित करने हेतु अभियान चलाया। अतीत के दुःखद संदर्भों को मनमाने ढंग से जीवित रखा गया। एक वर्ग विस्तारवादी नीतियों पर आमादा हुआ तो दूसरा पुरातन के पुनर्जागरण में लग गया। सत्ता सुख के लालची लोगों ने समाज सेवा के क्षेत्र का पैसों की चमक से अतिग्रहण कर लिया। क्षेत्रीय संस्कृति को आस्था और आस्था को धर्म से जोडा जाने लगा।
षडयंत्रकारियों की एक बडी जमात मीरजाफर बनकर अपने ही देश का सौदा करने में जुट गई। इतिहास गवाह है कि ऐसे मीर जाफरों का दुःखद अंत होता रहा परन्तु लालची दलालों ने सौदागरों की भूमिका का परित्याग नहीं किया। ऐसे लोगों को आयातित संस्कृतियों के मूल स्थान से सहायता, सहयोग और संसाधन मिलते रहे। परिणामों के रूप में समूचे संसार को आतंकी, दहशदगर्दों और कट्टरपंथियों की बढती जमातें मिलीं जिन्होंने अवसर मिलते ही पूर्व निर्धारित षडयंत्रों को मूर्त रूप देना शुरू कर दिया। बरगलाकर गजवा-ए-दुनिया का इकबाल बुलंद करने वालों की संख्या बढाई जाती रही। अनेक मुस्लिम राष्ट्रों में गैर मुस्लिम लोगों को प्रताडित किया जाने लगा, उपयोग की वस्तु समझा जाने लगा और किया जाने लगा उनका खुला शोषण। संयुक्त राष्ट्र संघ के मूलभूत उद्देश्यों की दबाव के हथियारों से हत्या होती चली गई।
मानवाधिकार जैसे शब्दों को भाषणों, पुस्तकों और कथानकों तक सीमित कर दिया गया। मालूम हो कि बंगाल में विधान सभा के चुनाव सन् 2026 में प्रस्तावित हैं। ऐसे में बिहार से सीख लेकर एनडीए के विरोधी दलों की शह पर अयोध्या विवाद को पुनः हवा दी जाने लगी है ताकि वोटों का ध्रवीकरण किया जा सके। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश के अयोध्या शहर में 6 दिसंबर 1992 को ही विवादित ढांचा गिराया गया था जिसे एक वर्ग बाबरी मस्जिद के रूप में मान्यता देता रहा है जबकि न्यायालय द्वारा उसे प्रमाणों के आधार पर रामजन्म भूमि के रूप में घोषित किया जा चुका है। न्यायालय के फैसले के बाद से ही षडयंत्रकारियों की एक बडी जमात देश को पुनः साम्प्रदायिक आग में झौंकने की तैयारी में जुट गये थे। सफेदपोश धन-पशुओं ने मानवता पर पुनः कुठाराघात करने के लिए वही 6 दिसम्बर की तारीख का चयन किया और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के रेजीनगर में अयोध्या की बाबरी मस्जिद के मॉडल पर आधारित एक मस्जिद की नींव रखवा दी। इस हेतु तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर नेता और विधायक हुमायूं कबीर को दायित्व सौंपा गया था। पश्चिम बंगाल सरकार ने देश के सौहार्द को बिगाडने वाले इस आयोजन को पूरा संरक्षण दिया। हुमायूं ने आयोजन मंच से जमकर जहरीले तीर चलाये।
कभी संविधान की दुहाई पर उपासना स्थल के निर्माण के नाम पर अपने कृत्य को जायज ठहराया तो कभी 33 साल पुरानी विवादित ढांचे गिराने वाली घटना को जख्म बताया। कभी देश की 40 करोड़ मुस्लिम बसाहट की ताकत दिखाई तो कभी राज्य में चार करोड़ मुसलमानों का भय। आयोजन मंच पर सऊदी अरब के धार्मिक नेताओं को बुलाकर कट्टरता का दिग्दर्शन करने वाले आयोजक ने रामजन्म मंदिर के निर्माण की रीति अपनाई और ईंटों का प्रतीकात्मक संग्रह किया। क्रूर आक्रान्ता बाबर के नाम पर विकसित होने वाले 25 बीघा के विशाल परिसर में मुख्य मस्जिद तीन कट्ठा जमीन पर बनाने की योजना है। इस पूरे स्थल को 300 करोड से अधिक धनराशि से विकसित करने घोषणा करते हुए हुमायूं ने गुप्त दान के रूप में एक मुस्त 80 करोड मिलने का दावा भी किया। पुरातन संस्कृति के ऊपर आयातित रीतियों को थोपकर कट्टरता परोसने वालों के मंसूबों को सुखद कदापि नहीं कहा जा सकता।
संख्याबल के साथ-साथ धनबल को रेखांकित करने वाले हुमायूं ने क्रूर आक्रान्ता के नाम पर देश की छाती पर एक और खंजर भौंपने की चाल को मूर्त रूप दे दिया और सरकारें अपने संविधान की बेडियों में कैद होने का रोना रोतीं रहीं। देश में जब तक धर्म के नाम पर आस्था के साथ खिलवाड होता रहेगा तब तक कट्टरता को समाप्त करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। इस हेतु निजिता से जुडी श्रद्धा को नितांत व्यक्तिगत कारक माने बिना वैचारिक परिवर्तन नहीं हो सकता।
धार्मिक कट्टरता का उन्माद फैलाने वालों को चिन्हित करके उनके विरुद्ध कडी कार्यवाही होना ही चाहिए तभी विकास के वास्तविक स्वरूप के दिग्दर्शन हो सकेंगे। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
- डा. रवीन्द्र अरजरिया

