जागो फिर एक बार : निराला की अमर पुकार

नेशनल एक्सप्रेस डिजिटल डेस्क
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‘चतुरी चमार’, ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ जैसे रचनाएँ हिंदी समाज के उन चेहरों को सामने लाती हैं जिन्हें साहित्य से जानबूझकर बाहर रखा गया था। उन्होंने पहली बार दलित, वंचित और हाशिए के लोगों को केवल विषय नहीं, बल्कि स्वर बनाया।

दिसंबर की धुंध जैसे ही शहर की छतों पर उतरती है और हवा में सर्द खामोशी गहराने लगती है, भीतर कहीं एक पुरानी, तेज़, अडिग आवाज़ उठती है—एक ऐसी आवाज़ जो समय, दूरी, मृत्यु—किसी भी सीमा से बंधती नहीं। वह आवाज़ आदेश भी है, पुकार भी, चुनौती भी: “जागो फिर एक बार!” यह आवाज़ किसी किताब, पाठ्यक्रम या समारोह की नहीं; यह सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की है - जो 8 दिसंबर 1961 को प्रयागराज की एक साधारण कोठरी में देह त्याग गए, पर अपने शब्दों से भारतीय चेतना में इतनी गहरी लकीर छोड़ गए कि आज भी वह मिटाई नहीं जा सकती। मृत्यु केवल शरीर की होती है; निराला जैसे कवि तो अपनी आग शब्दों में छोड़ जाते हैं—और वह आग आज भी धधक रही है।

निराला केवल कवि नहीं थे; वे साहित्य के भूगोल को बदल देने वाली एक विराट घटना थे। जब हिंदी कविता छायावाद की सुकोमल, शीतल, सुकुमार रोशनी में भीगी हुई थी, उन्होंने उसी प्रकाश पर प्रश्न खड़ा कर दिया। उन्होंने कोमलता में भूख की कड़वाहट मिलाई, सौंदर्य में शोषण की कालिमा घोली और स्वप्नों पर मनुष्य के संघर्ष की दरार डाल दी। ‘राम की शक्ति-पूजा’ उनकी इसी क्रांतिकारी दृष्टि का चरम है—जहाँ राम देवता नहीं, थकते, हारते, रोते मनुष्य हैं, जो अंततः उठ खड़े होते हैं। निराला ने भक्ति को पूजा की निष्क्रियता से निकालकर संघर्ष की सक्रियता में बदल दिया। “नव इतिहास रचो!”—यह केवल पंक्ति नहीं, एक युग की धड़कन है, एक आदेश है, जो समय की हर परत पर हथौड़े की तरह बजता है।

उनमें एक विरोधी ताप था, जो भीड़ का हिस्सा बनने से इंकार करता था। जहाँ अन्य कवि दरबारों में गाते थे, वे सड़कों पर भटकते थे; जहाँ लोग सुरक्षित जगहों पर कविता रचते थे, वे भूख, बेघरी और दर्द के गर्त में उतरकर लिखते थे। बंगाल का अकाल उन्हें भीतर से तोड़ गया; पत्नी और बेटी की मृत्यु ने उन्हें लगभग खामोश कर दिया होता—यदि वे निराला न होते। इस असहनीय पीड़ा से उठकर उन्होंने ‘भिक्षुक’, ‘बादल राग’, ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी रचनाएँ दीं, जिनमें मानव दुःख का सबसे नग्न, सबसे सच्चा स्वर है। प्रयाग की एक मजदूर स्त्री को पत्थर तोड़ते देखकर जो पंक्तियाँ उन्होंने लिखीं—“तोड़ती पत्थर”, वह केवल कविता नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय की पूरी इबारत है। उस स्त्री में उन्होंने समूची मेहनतकश मानवता को देख लिया था।

उनका जीवन संघर्ष किसी अप्रकाशित महाकाव्य से कम नहीं था। कभी संपादक बने, तो कभी बेरोज़गार; कभी बीमारी ने घेरा, कभी कर्ज, कभी उपेक्षा। अधिकांश प्रकाशकों ने उनका शोषण किया, पाठकों ने समझने में समय लिया, आलोचकों ने छायावाद से बाहर निकलने का दोष लगाया। फिर भी निराला हर वार के बाद और भी धारदार होते गए। उनकी लेखनी को रोकने का हर प्रयास उल्टा उसे और अग्निमय बना देता। वे टूटे नहीं, केवल तपते रहे।

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गद्य में उनका योगदान उतना ही उग्र और असाधारण है। ‘चतुरी चमार’, ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ जैसे रचनाएँ हिंदी समाज के उन चेहरों को सामने लाती हैं जिन्हें साहित्य से जानबूझकर बाहर रखा गया था। उन्होंने पहली बार दलित, वंचित और हाशिए के लोगों को केवल विषय नहीं, बल्कि स्वर बनाया। निराला ने हिंदी साहित्य को केवल सुंदर नहीं, बल्कि सचेत, संवेदनशील और विद्रोही बना दिया। उनका लेखन किसी अलंकरण का खेल नहीं, बल्कि मनुष्य के पक्ष में खड़ा होने की घोषित पुकार है।

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आज जब लोग मोबाइल स्क्रीन पर दो पंक्तियों की क्रांति लिखकर स्वयं को विद्रोही समझ लेते हैं, तब निराला की पूरी कविताएँ चुनौती बनकर सामने खड़ी होती हैं। उन्होंने कभी आधे-अधूरे वाक्यों में विद्रोह नहीं किया; उन्होंने पूरी किताबें आग में झोंक दीं। ‘अणिमा’, ‘नये पत्ते’, ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’—ये कृतियाँ उनकी ऊँचाई को नापने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। वे एक साथ प्रगतिशील भी थे, प्रयोगवादी भी, आध्यात्मिक भी, और सबसे अधिक मानवीय। मार्क्स और गांधी दोनों उनके भीतर रहते थे—एक आग की तरह, एक रोशनी की तरह।

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8 दिसंबर केवल उनकी पुण्यतिथि नहीं है—यह हर साल उठने वाला, अनकहा, चुनौतीपूर्ण प्रश्न है। क्या हमने वह साहस जिया, जिसकी उन्होंने जोर देकर माँग की थी? क्या हमने वह विद्रोही चेतना बचाए रखी, जिसे उन्होंने अपने शब्दों, अपने लेखन, अपने समूचे अस्तित्व से जगाया था? आज की जो भी कविताएँ सबसे बेखौफ, सबसे तीव्र, सबसे सजीव और सबसे सच्ची हैं—वे सभी कहीं न कहीं निराला के कदमों के निशान पर चल रही हैं, उनके अग्नि-लेखित मार्ग पर अग्रसर हैं।

जब शाम ढलने लगती है, हवा और ठंडी हो जाती है, और चारों तरफ एक गहरा सा सन्नाटा फैलने लगता है—और ठीक उसी क्षण भीतर कहीं उनकी वह पंक्ति गूंज उठती है, जो हिम्मत की अंतिम शरण, अंतिम दीपक बनकर जलती है— “जूझ रहा हूँ, जूझने दो मुझे, मरने से पहले मरने नहीं दूँगा मैं अपने को।” निराला जीवित हैं—हर उस आवाज़ में जो अन्याय को आँख से आँख मिलाकर चुनौती देती है, हर उस दिल में जो सच कहने का जोखिम उठाता है, हर उस मनुष्य में जो टूटने, झुकने, हार मान लेने से इनकार करता है। जागो। फिर एक बार।

- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”