गीता पढ़ी पुस्तक में, लेकिन दीक्षा गांधीजी से मिली_विनोबा
विनोबा विचार प्रवाह! एकवर्षीय मौन संकल्प का 305वां दिन
बाबा निरंतर अनुभव करता है कि बापू मेरे आगे पीछे और ऊपर हैं। बाबा शंकराचार्य के एक वाक्य का हर समय ध्यान रखते थे कि मनुष्य के परम भाग्य तीन होते हैं।
वर्ष 1916 का 7 जून का वह दिन बाबा पहली बार गांधीजी से कोचरब आश्रम में मिले। बाबा इसको भगवान की कृपा। मानते थे । बाबा अपना हृदय और जीवन जब देखते थे। तो। दोनों बापू के चरणों में स्थिर लगते हैं। जो विचार और शिक्षण बापू से मिला है उस पर बाबा कितना अमल कर सका। इसे तो भगवान के अलावा और कोई नहीं जानता होगा। हां बाबा ने जितना समझा उस पर सावधान रहकर अमल करने की कोशिश पूरी रही।
बाबा निरंतर अनुभव करता है कि बापू मेरे आगे पीछे और ऊपर हैं। बाबा शंकराचार्य के एक वाक्य का हर समय ध्यान रखते थे कि मनुष्य के परम भाग्य तीन होते हैं।
1_ मानव _देह की प्राप्ति। 2_ मुमुक्षत्वम अर्थात मुक्ति की छटपटाहट। 3__ किसी महापुरुष के आश्रय का लाभ। बाबा इस पर विचार कर खूब आनंदित होते थे। क्योंकि बाबा को मानव देह मिली,मुक्ति की धुन लगी और महापुरुष का सत्संग मिला। महात्माओं। की वाणी पुस्तक में पढ़ना एक बात और प्रत्यक्ष सत्संग प्राप्त कर उनके मार्गदर्शन में काम करना, प्रत्यक्ष उनका जीवन दर्शन करना, यह अलग बात है। बाबा को यह भाग्य प्राप्त हुआ था। बाबा यह भी कहते थे कि गांधीजी ने मेरी परीक्षा या कसौटी कभी की होगी या नहीं, यह तो बाबा नहीं जा लेकिन बाबा ने उनकी परीक्षा कर ली थी अगर उसमें बापू खरे न उतरते तो उनके पास बाबा टिक ही नहीं पाता।
बाबा की खामियां कुछ जरूर देखी होंगी लेकिन तब भी साथ रखा। लेकिन मैं अगर खामी देखता तो शायद बाबा न रुक पाता। बाबा अपने को अधूरा और अपूर्ण ही मानते थे। झूठ बोलना वे नहीं जानते थे। वे पूर्ण सत्यनिष्ठ थे। बाबा ने ऐसे अनेक महापुरुष देखे थे कि आभास होता है कि वे मुक्तपुरुष हैं। फिर भी बाबा को किसी का आकर्षण नहीं हुआ। लेकिन अपने को अपूर्ण मानने वाले बापू का ही बाबा को आकर्षण रहा। बापू का जितना असर पड़ा वैसा और किसी का कभी नहीं पड़ा।
बापू की अंतर्बाह्य एकता की अवस्था के कारण बाबा मिलते ही मुग्ध हो गया। कर्मयोग के बारे में पढ़ा गीता में लेकिन उसकी दीक्षा और साक्षात्कार बापू के चरणों में ही हुई। गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताए गए हैं वे जिस पर लागू हों ऐसा स्थितप्रज्ञ देहधारी खोजने पर बड़े भाग्य से ही मिलेगा। लेकिन बाबा ने इन लक्षणों के बहुत निकट पहुंचे ऐसे महापुरुष को अपनी आंखों से देखा। बाबा एक बात और कहते थे कि अक्सर लोग कहते हैं कि जो लोग बड़े लोगों की छाया में रहते हैं, उनका पूरा विकास नहीं होता। जैसे बड़े पेड़ की छाया में जो छोटे छोटे पौधे होते हैं उनका पोषण नहीं होता,वे बढ़ नहीं पाते। लेकिन यह मिसाल महापुरुषों पर लागू नहीं होती। वहां के लिए दूसरी मिसाल है कि महापुरुषों के आश्रय में जो रहते हैं वे गाय के साथ बछड़े जैसे रहते हैं।
गाय अपना दूध उन्हें देती है वह खुद घास आदि खाकर अमृत जैसा दूध पिलाती है। उसके आश्रय में बछड़े पलते हैं। ऐसा ही अनुभव बापू का हम सबको आया। उनके आश्रय में कोई बुरा भी आया तो अच्छा बन गया। छोटे थे बड़े बन गए। कायर थे तो निर्भय बन गए। उन्होंने हजारों का महत्व बढ़ाया जबकि वे अपने को सबसे छोटा समझते थे। बाबा तो 21 वर्ष की उम्र में जिज्ञासु बालक की वृत्ति लेकर पहुंचे थे।
बाबा के मित्र जानते थे कि विनोबा के अंदर सभ्यता और शिष्टता जिसे कहते हैं वह सब नहीं है। बाबा के अंदर के क्रोध के ज्वालामुखी और दूसरी अनेक वासनाओं के बड़वानल का शमन करने वाले तो बापू ही थे। बाबा तो अपने को बापू का एक पालतू जंगली प्राणी मानते थे। बापू ने ही बाबा को असभ्य से सेवक बना दिया।

