कर्मचारी मशीन नहीं—भारत की कार्य-संस्कृति पर बड़ी बहस

नेशनल एक्सप्रेस डिजिटल डेस्क
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प्रो. आरके जैन “अरिजीत”

क्या हम इंसान हैं या मशीन? राइट टू डिस्कनेक्ट का बड़ा सवाल। बच्चे की कहानी या बॉस का कॉल—कब तक चलेगी ये जद्दोजहद?

कल्पना कीजिए - रात के दस बज रहे हैं। घर में सुकून भरी रोशनी है, डिनर टेबल पर परिवार साथ बैठा है, और आपका बच्चा पहली बार स्कूल का किस्सा पूरे उत्साह से सुनाना शुरू करता है। तभी अचानक फोन की तेज़ रिंग उस खुशनुमा माहौल पर जैसे ब्रेक लगा देती है—“सर, बस दो मिनट, ये प्रेज़ेंटेशन अपडेट कर दीजिए।”

आप चेहरे पर मुस्कान सजाते हैं, पर भीतर कहीं गहरा दरार बन जाता है। अगले दस मिनट में खाना ठंडा हो जाता है, बच्चे की कहानी हवा में झूलती रह जाती है, और आपका मन एक बार फिर ऑफिस की अदृश्य जंजीरों में जकड़ जाता है। यह किसी एक परिवार की कहानी नहीं—पिछले दस सालों में भारत के करीब 60% से अधिक व्हाइट-कॉलर कर्मचारियों की कड़वी, रोज़ दोहराई जाने वाली सच्चाई है।

05 दिसम्बर को जब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) की सांसद सुप्रिया सुले ने लोकसभा में ‘राइट टू डिस्कनेक्ट बिल-2025’ रखा, तो भले ही सदन में तालियां नहीं बजीं सी, लेकिन देशभर के लाखों नौकरीपेशा लोगों के भीतर एक नई, चमकती उम्मीद ज़रूर जागी। यह बिल बिल्कुल साफ है: दफ़्तर के तय समय के बाद न कोई फोन ज़रूरी होगा, न ई-मेल, न वॉट्सऐप संदेश। जवाब न देना अब अनुशासनहीनता नहीं, बल्कि सुरक्षित कानूनी अधिकार माना जाएगा। इतना ही नहीं, बिल में एक शक्तिशाली ‘एम्प्लॉयी वेलफेयर अथॉरिटी’ बनाने का भी प्रस्ताव है—एक ऐसी संस्था जो शिकायतें सुनेगी, नियम कड़ाई से लागू करेगी और ज़रूरत पड़ने पर जुर्माना लगाने की ताक़त भी रखेगी।

यह बिल कोई अनसुना विचार नहीं है। पुर्तगाल, फ्रांस, बेल्जियम, इटली, स्पेन—दर्जनों यूरोपीय देशों में यह कानून पहले से लागू है। फ्रांस ने तो 2017 में ही 50 से अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों के लिए इसे अनिवार्य कर दिया था। परिणाम चौंकाने वाले थे—बर्नआउट के मामले घटे, और उत्पादकता कम होने के बजाय बढ़ी, क्योंकि कर्मचारी अगले दिन ताज़गी और साफ़ दिमाग के साथ काम पर लौटते थे। इसके विपरीत, भारत में हम 70–80 घंटे काम करने की संस्कृति को ही उपलब्धि मानकर चलते रहे हैं। मगर डब्ल्यूएचओ और आईएलओ लंबे कार्य-घंटों के कारण दिल की बीमारी या स्ट्रोक से अपनी जान गंवाते हैं, और इनमें सबसे अधिक संख्या भारत और चीन के लोगों की है।

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हमारे यहां हालात और भी भयावह हैं। एक हालिया सर्वे बताता है कि 60% से अधिक भारतीय कर्मचारी रात 11 बजे के बाद भी दफ़्तर के संदेशों का जवाब देने को मजबूर होते हैं। 70% से अधिक लोगों का साफ़ कहना है कि वे डर के कारण ऐसा करते हैं—“जवाब न दिया तो बॉस नाख़ुश हो जाएगा, पदोन्नति रुक जाएगी, नौकरी पर असर पड़ जाएगा।” यही भय ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ को सिर्फ ज़रूरी नहीं, बल्कि अनिवार्य बनाता है। यह मात्र विश्राम का अधिकार नहीं—यह मानसिक संतुलन, व्यक्तिगत गरिमा और स्वस्थ जीवन का अधिकार है।

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कुछ लोग तर्क देंगे—“इससे तो काम ठप हो जाएगा!” पर सच इससे बिल्कुल उलट है। जब फ्रांस ने यह क़ानून लागू किया, तो कंपनियों ने खुद ही कार्य-संस्कृति को व्यवस्थित किया। मीटिंग्स छोटी हुईं, अनावश्यक संदेश बंद हुए, और प्राथमिकताएं स्पष्ट हुईं। भारत में भी यही बदलाव आएगा। क्योंकि जब कर्मचारी को भरोसा होगा कि रात दस बजे के बाद उसका फोन नहीं बजेगा, तब वह दिन के घंटों में ही दोगुनी एकाग्रता और ऊर्जा के साथ काम करेगा—बिना डर के, बिना थकान के।

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दूसरी ओर, कांग्रेस सांसद कडियाम काव्या ने इसी सत्र में महिला कर्मचारियों के लिए 'मेन्स्ट्रुअल लीव बिल' बिल पेश किया है, जो महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान 2 दिन की पेड लीव, रेस्ट सुविधाएं, साफ वॉशरूम और सैनिटरी इंफ्रास्ट्रक्चर देता है। अब दो महत्वपूर्ण बिल साथ आए हैं—एक शरीर की थकान और मानसिक बोझ से बचाने वाला, दूसरा शरीर के दर्द और ज़रूरतों को समझने वाला। दोनों मिलकर यह साफ़ संदेश दे रहे हैं कि इंसान सिर्फ मशीन नहीं है। उसके पास नींद है, परिवार है, दर्द है, भावनाएँ हैं और सबसे बढ़कर—उसकी अपनी पूरी जिंदगी है।

ये प्राइवेट मेंबर बिल है। सही है, ज्यादातर प्राइवेट मेंबर बिल पारित नहीं होते। फिर भी इतिहास गवाह है—महिला आरक्षण बिल कभी प्राइवेट मेंबर बिल के रूप में ही रखा गया था, और समलैंगिक संबंधों को अपराधमुक्त करने की मांग भी एक प्राइवेट बिल से हुई थी। कई विचार जो पहले असंभव, अव्यावहारिक या सिर्फ दूर की कल्पना माने जाते थे, वे जनता की सतत मांग, दबाव और सामूहिक आवाज़ से ही एक दिन वास्तविक कानून के रूप में आकार लेते हैं।

आज आवश्यकता है कि हम सब—कर्मचारी, यूनियन, मीडिया, सोशल मीडिया—मिलकर जोरदार आवाज़ उठाएं। अपने बॉस को नहीं, अपने सांसद को टैग करें। उनसे सीधे पूछें—क्या आप मेरे आराम और मेरी निज़ी ज़िंदगी के हक़ में हैं या नहीं? क्योंकि यह लड़ाई किसी एक पार्टी की नहीं है, बल्कि हर उस इंसान की है जो शाम सात बजे के बाद अपने बच्चे की हंसी सुनना चाहता है, बिना यह डरे कि कहीं बॉस का मैसेज न आ जाए। यह हमारी गरिमा, हमारी खुशी और हमारी ज़िंदगी की लड़ाई है।

राइट टू डिस्कनेक्ट सिर्फ एक बिल नहीं, यह हमारी सभ्यता और जीवन के मूल्य का सवाल है। यह सीधे सवाल उठाता है—क्या हम इंसान को फिर से इंसान बनने का हक देंगे, या उसे हमेशा के लिए थकाऊ वर्किंग मशीन बनाकर रखेंगे? यह बिल केवल अधिकार की बात नहीं करता, यह हमारी ज़िंदगी, हमारे परिवार और हमारी मानसिक शांति का सम्मान मांगता है। उम्मीद है कि इस बार संसद साफ़ जवाब देगी—हां, तुम इंसान हो, मशीन नहीं। और वह दिन जब रात दस बजे फोन बजेगा, हम बिना किसी अपराधबोध या डर के उसे साइलेंट कर सकेंगे, अपने समय और अपने जीवन के मालिक बनकर। यह सिर्फ कानून नहीं, बल्कि हमारी आज़ादी, हमारी गरिमा और हमारी खुशहाल जिंदगी की जीत होगी।