साहित्य सत्य की साधना, संस्कृति का शाश्वत पर्याय
संजीव ठाकुर की कलम से
साहित्य कोई जड़ संस्था नहीं, बल्कि एक जीवंत संवेदना है। जो समय, समाज, परिस्थितियों और मानवीय अनुभूति के साथ-साथ निरंतर विकसित होती रहती है।
मनुष्य केवल शरीर मात्र नहीं, वह चेतना का संवाहक है, और जब यही चेतना भावनाओं की अनुभूति लेकर किसी व्यक्त रूप में शब्दों से साकार होती है, तब उसका परिवर्जित, परिष्कृत और सृजनात्मक रूप साहित्य कहलाता है। साहित्य कोई जड़ संस्था नहीं, बल्कि एक जीवंत संवेदना है। जो समय, समाज, परिस्थितियों और मानवीय अनुभूति के साथ-साथ निरंतर विकसित होती रहती है। इसमें सत्य की साधना है, शिवत्व की कामना है और सौंदर्य की अभिव्यंजना भी। जब मनुष्य अपने अंतर की स्पंदित आत्मा को शब्दों में ढालता है, तब वह न केवल अपने युग का दस्तावेज रचता है, बल्कि आने वाले युगों तक मानवता के हृदय को आलोकित करता रहता है।
उत्कृष्ट साहित्य समाज की भावनाओं का आधारस्तंभ होता है, जो मनुष्य के भीतर छिपी उस सहज वृत्ति को जाग्रत करता है, जो करुणा, प्रेम, समरसता, नैतिकता और मानवीय संवेदना से पोषित होती है। साहित्य की यह शाश्वतता उसे कालजयी बनाती है; इसी कारण कालिदास की कवित्व दृष्टि, सूरदास की भक्ति संवेदना, कबीर की निर्भीक वाणी, प्रेमचंद का यथार्थ और शेक्सपियर की मानवीय त्रासदी आज भी उतनी ही प्रासंगिक प्रतीत होती है, जितनी अपने समय में थी। उनकी कृतियाँ मात्र शब्दों का सौंदर्य नहीं, बल्कि मानव-आत्मा के संवेदनात्मक इतिहास की जीवित प्रतिलिपियाँ हैं, जो यह स्मरण कराती हैं कि युगों की दूरी होने पर भी मनुष्य की पीड़ा, आशा, संघर्ष और संवेदना की मौलिक ध्वनि नहीं बदलती, केवल उसका बाह्य रूप परिवर्तित होता है।
राजनीतिक और भौगोलिक विभाजनों के बीच भी साहित्य मनुष्य को एक धरातल पर लाता है, क्योंकि शब्द का संसार सीमाओं से परे है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि “भाषाएँ भिन्न हो सकती हैं, पर भाव एक ही रहते हैं।” किसी राष्ट्र की भाषा और साहित्य उसकी सभ्यता, संस्कृति, विचार-यात्रा और मानसिक प्रगति के सूचक होते हैं। साहित्य के अध्ययन से समाज की आत्मा को जाना जा सकता है—उसके उल्लास, संघर्ष, स्वप्न, पीड़ा और परिवर्तन की दिशा को समझा जा सकता है। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य को “जीवन की आलोचना” कहा था, और यह परिभाषा आज के संदर्भ में और अधिक सार्थक प्रतीत होती है। साहित्य केवल सौंदर्य का उत्सव नहीं, बल्कि समाज के नैतिक संकटों का दर्पण है, जो विसंगतियों को उजागर करता है, अन्याय पर प्रश्न उठाता है, और मनुष्य के अंतस में छिपे विवेक को जगाता है।
सशक्त लेखक अपने समय की संवेदना का प्रहरी होता है। वह शब्दों के माध्यम से उस मौन को स्वर देता है, जो अक्सर व्यवस्था, भय, लोभ या मोह में दब जाता है। प्राचीन ऋषि-परंपरा से लेकर आधुनिक विचारकों तक, प्रत्येक युग का साहित्य मानवता के चरित्र का संपूर्ण चित्रण करता है। साहित्य और संस्कृति का संबंध उतना ही गहरा है जितना नदी और जल का; यदि संस्कृति मूल्य, सदाचार, परंपरा, आध्यात्मिकता और आस्था का रूप है, तो साहित्य उन मूल्यों को शब्दों की धारा में प्रवाहित करने वाला माध्यम है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव चेतना को जीवित और सार्थक बनाए रखता है। जब समाज किसी मूल्य-संकट से गुजरता है, तब सृजनशील साहित्य ही उसे नयी दिशा, नयी दृष्टि और नयी ऊर्जा प्रदान करता है। वर्तमान समय में जब भौतिकता की चमक ने मानवीय संवेदना को लगभग ढँक लिया है, जब सूचना का विस्फोट तो है पर अनुभूति की गहराई का अभाव है, जब तकनीक ने मनुष्य को मशीनों के मध्य अकेला कर दिया है, तब साहित्य की भूमिका और अधिक निर्णायक और गंभीर हो गई है। आज का साहित्य केवल विचार का माध्यम नहीं, बल्कि विवेक का रक्षक और मानवीय करुणा का प्रहरी है। जो साहित्य इस युग में मनुष्य को ‘मनुष्य’ बने रहने की चेतना देता है—वही श्रेष्ठ साहित्य है। हिंदी साहित्य विशेष रूप से समन्वय-प्रधान रहा है।
कबीर की निर्भीकता, रविंद्रनाथ टैगोर की आध्यात्मिकता, प्रेमचंद का यथार्थवाद, जयशंकर प्रसाद की भाव-संवेदना, महादेवी वर्मा की करुणा, दिनकर का ओज और फणीश्वरनाथ रेणु की ग्राम्य चेतना—ये सभी मिलकर हिंदी साहित्य को जनमानस की आत्मा बनाते हैं। उनकी कृतियाँ केवल साहित्य नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन हैं। साहित्य एक सामाजिक प्रक्रिया है; यह अपने समय की आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है और उन्हें प्रभावित भी करता है। यथार्थवाद और आदर्शवाद का संयम ही साहित्य की पूर्णता है। जयशंकर प्रसाद के शब्द—“जीवन की अभिव्यक्ति यथार्थवाद है और अभाव की पूर्ति आदर्शवाद”—आज भी उतने ही सार्थक हैं, क्योंकि समाज को बदलने के लिए केवल यथार्थ देखकर चलना पर्याप्त नहीं, आदर्श की दृष्टि भी अनिवार्य है। आज जब संवेदनाओं का क्षरण, संबंधों में दूरी और मनुष्यता में विभाजन बढ़ रहा है, तब साहित्य ही वह शक्ति है जो हृदय को पुनः हरियाली से भर सकता है, समाज में संवाद की संस्कृति को पुनर्जीवित कर सकता है, और मानवीय मूल्यों की लौ को पुनः प्रज्वलित कर सकता है। साहित्य हमें यह याद दिलाता है कि समय बदल सकता है, पर मानवता का मूल स्वर करुणा, प्रेम और शांति ही है।
साहित्य शब्दों का संग्रह मात्र नहीं, वह जीवन का सार, समाज का दिशा-दर्शन और अंधकार में आशा का दीपक है। वही साहित्य श्रेष्ठ है जो मनुष्य के भीतर भी प्रकाश जलाए और बाहर भी पथ आलोकित करे। निश्चय ही वह दिन दूर नहीं जब हिंदी साहित्य अपने मानवीय विस्तार, वैश्विक संवेदना और सांस्कृतिक गहराई के कारण विश्व-पटल पर और अधिक आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। क्योंकि अंततः साहित्य वही है जो मानवता को बचाए रखे, और यही उसकी सबसे बड़ी साधना है, यही उसका शिवत्व है।
- संजीव ठाकुर

