विनोबा विचार प्रवाह! एकवर्षीय मौन संकल्प का 284 वां दिन

नेशनल एक्सप्रेस डिजिटल डेस्क
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चीन और जापानवालों को उसका पता सालों बाद हुआ। आज दुनिया की छोटी सी भी घटना का असर हिंदुस्तान के बाजार पर तुरंत हो जाता है। इस जमाने की सबसे बड़ी शक्ति है, निर्णय_ शक्ति। उसी को प्रज्ञा कहते हैं। जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई,उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं।

सुखार्थी को विद्या कहां? और विद्यार्थी को सुख कहां? विनोबा *****।स्थितप्रज्ञ कौन है? जिसकी प्रज्ञा में निर्णय शक्ति है। आज सारी दुनिया नजदीक आ गई है, इसलिए बहुत बड़े व्यापक पैमाने पर सोचकर व्यापक बुद्धि से निर्णय लेना पड़ता है। पहले न इतने बड़े सवाल होते थे क्योंकि लोगों को दुनिया का इतना ज्ञान नहीं था।

अपने देश में सबसे बड़ी लड़ाई पानीपत की हुई थी। चीन और जापानवालों को उसका पता सालों बाद हुआ। आज दुनिया की छोटी सी भी घटना का असर हिंदुस्तान के बाजार पर तुरंत हो जाता है। इस जमाने की सबसे बड़ी शक्ति है, निर्णय_ शक्ति। उसी को प्रज्ञा कहते हैं। जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई,उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। विद्यार्थियों को स्थितप्रज्ञ बनना चाहिए। उनकी संकल्प शक्ति दृढ़ करने की कोशिश होनी चाहिए। विद्यार्थी अवस्था में ही संयम की महान विद्या सीख लेनी है। संयम आया तो एकाग्रता भी पा लेंगे जो जीवन की एक महान शक्ति है। बारिश का पानी     

 अलग अलग दिशाओं में बह जाने से तो नदी नहीं बनेगी।नदी बनाने के लिए नियत दिशा चाहिए। विद्यार्थी निरंतर सेवा परायण रहें। बिना सेवा ज्ञान_ प्राप्ति नहीं होगी। महाभारत में एक प्रसंग है कि अर्जुन, भगवान कृष्ण,और धर्मराज बैठे हैं। अर्जुन की।प्रतिज्ञा थी कि जो मेरे गांडीव की निंदा करेगा,उसे मैं मारूंगा। धर्मराज ने अर्जुन का उत्साह बढ़ाने के लिए गांडीव की निंदा करते हुए कहा कि तू और तेरा गांडीव इतना बलवान है, फिर भी हमें इतनी तकलीफ हो रही है, हमारे शत्रु खत्म नहीं हो रहे हैं। अर्जुन बड़ा धर्मनिष्ठ था और उसको अपने भाई से बहुत प्रेम था। वह अपनी खुद की निंदा सह लेता, परन्तु गांडीव की निंदा नहीं सह सका, इसलिए कृष्ण के सामने ही उसने धर्मराज पर प्रहार करने के लिए हांथ उठाया। कृष्ण ने उसका हांथ खींचते हुए उससे कहा कि तू कैसा मूर्ख है? तुझे ज्ञान नहीं है, तूने वृद्धों की सेवा नहीं की है,तो तुझे ज्ञान कैसे प्राप्त होगा? महाभारत में ही अन्यत्र यक्ष_प्रश्न की कहानी है।उसमें एक प्रश्न पूंछा गया है कि ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?

तो जबाव मिला _ ज्ञानं वृद्धोपसेवया _ वृद्धों की सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है । वृद्धों के पास अनुभव होता है और जो सेवापरायण होते हैं, उनके सामने वृद्धों का दिल खुल जाता है और वे अपना सर्वस्व दे देते हैं। इसलिए विद्यार्थियों को वृद्धों की,माता पिता की, दीन दुखियों की, समाज की सेवा करनी चाहिए।

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 विद्यार्थी को सर्व_सावधान एवं सर्व व्यापक होना चाहिए। उनकी बुद्धि संकुचित नहीं होना चाहिए।दुनिया में समाज की जो हलचलें चलती हैं।उन सबका अध्ययन करना चाहिए। विद्यार्थी को सोचना चाहिए कि हम दृष्टा हैं। और यह सब दृश्य हैं। उससे मैं अलग हूं, भिन्न हूं। धर्म के भाषा के सभी वादों से अलग हूं। विद्यार्थी तो विश्व नागरिक की सोच रखे। विद्यार्थी भारतीयता से ऊपर उठे हुए विश्व मानव हैं। हम विद्या के उपासक हैं,तटस्थ बुद्धि से सोचनेवाले हैं और हम संकुचित और पांथिक नहीं बन सकते। बाबा अपनी बचपन की पढ़ाई का जिक्र करते हुए कहते थे कि आज जो तालीम चलती है, उसमें विद्यार्थी अगर छुट्टी नहीं चाहेगा,तो वह मूरख होगा। स्कूल में छुट्टियों के बाद भी हम क्लास में हाजिरी देकर घूमने निकल जाता था।अगर न निकले होते तो आज भूदान यज्ञ में नहीं निकल पाता। बाबा को वह शिक्षण बहुत नीरस लगता था।

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अंततः बाबा ने कालेज छोड़ ही दिया। माता पिता के लिए जो इज्जत हमारे मन में हो उससे ज्यादा गुरु के लिए होनी चाहिए लेकिन गुरु जी भी वैसे होने चाहिए। संस्कृत विषय को भी आज असुंदर बना दिया गया है। बच्चों के सामने पहले व्याकरण के रूप खड़े किए जाते हैं,वह सारी सेना देखकर डर जाते हैं। पहले 100 प्रतिशत याद रखना पड़ता था आजकल तो 67 फीसदी भूलने की इजाजत और 33 फीसदी याद रखने की उनसे अपेक्षा की जाती है। बाबा कहते थे कि यह भी बच्चों पर उपकार है। आज का विद्यार्थी बहुत सुविधा_प्रिय है।

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कठिनाइयों से बचना चाहता है। उनके माता पिता भी ऐसे स्कूल में भेजते, जहां ज्यादा सुविधाएं हों। महाभारत में कहा_ सुखारथिन कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिन सुखम। सुखार्थी को विद्या कहां और विद्यार्थी को सुख कहां? आज विद्यार्थी दोनों चाहता है इसलिए विद्या कैसे हासिल।होगी। विद्या के लिए ब्रम्हमुहूर्त में उठना पड़ेगा,व्यायाम करना,शरीर को संयम से रखना, इंद्रियों और बुद्धि पर काबू रखना पड़ेगा। तब कहीं जाकर विद्या हासिल होगी। उपनिषद् में युवा के लक्षण बताए गए हैं_ चारित्र्यवान, शीलवान, उत्तम अध्ययनशील, दृढ़ निश्चयी और बलिष्ठ। हृदय में आशा और हांथ में बल हो,ऐसे जवान से काम होता है। केवल यौवन होना व्यर्थ है। धन, संपति, सत्ता और अविवेक भी अनर्थ है। अगर कहीं चारों एकसाथ इक्कठे हो गए तो कहना ही क्या? युवकों में उत्साह होता है धैर्य भी चाहिए। बाबा कहते थे कि जोश और होश दोनों चाहिए। तरुण वृद्धों को समझने का प्रयत्न करें। जिस राष्ट्र को अपने विद्यार्थियों को उत्साहित करने के लिए प्रयास करने पड़े तो वह राष्ट्र तो खत्म ही समझिए। तरूणों को धृति चाहिए। उसी से उत्साह टिकता है और कारगर होता है।

धृति और उत्साह मिलकर कर्मयोग बनता है। प्रयोग से प्राप्त ज्ञान ही निसंशय ज्ञान होता है। बच्चों को रोटी बनाना नहीं आता। अगर वह लड़कियों का काम है तो खाना भी तो उन्हीं का काम है। अपने लिए ज्ञानामृत भोजन की व्यवस्था मानिए। श्रीकृष्ण ने बचपन में कितने तरीके के काम किए। इस कारण उनमें स्वतंत्र प्रतिभा के दर्शन हमें हुए। हमें ढेर सी नहीं बल्कि तेजस्वी विद्या हासिल करनी है। जिस विद्या में कर्तृत्व_शक्ति नहीं स्वतंत्र रूप से सोचने की बुद्धि नहीं, खतरा उठाने की वृत्ति नहीं, वह विद्या निस्तेज है। विद्यार्थी तेजस्वी विद्या प्राप्त करने की वृत्ति रखे।