दिल्ली के ‌कद्दावर नेता विजय कुमार मल्होत्रा नहीं रहे

नेशनल एक्सप्रेस डिजिटल डेस्क
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दिल्ली की सियासत का जब कभी इतिहास लिखा जाएगा तो प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा का जिक्र होना लाजमी है। ‌

दिल्ली। दिल्ली की सियासत का जब कभी इतिहास लिखा जाएगा तो प्रोफ़ेसर विजय कुमार मल्होत्रा का जिक्र होना लाजमी है। ‌आजादी के बाद मुल्क के और राज्यों की तरह दिल्ली में भी कांग्रेस का एक छत्र राज था। पहली बार 1958 में दिल्ली नगर निगम के चुनाव में जनसंघ ने सदन में प्रवेश किया, उसी में विजय कुमार मल्होत्रा पटेल नगर से सदस्य चुने गए और उसके बाद 1966 तक लगातार  कॉर्पोरेशन का चुनाव जीतते रहे। 1967 में दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद ,(मुख्यमंत्री बने)  तथा दो बार विधायक, पांच बार लोकसभा के सदस्य भी चुने गए। उनके खाते में सबसे बड़ी जीत 1999 के आम चुनाव में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मन मनमोहन सिंह को हराना था। 

‌वे अखिल भारतीय जनसंघ के स्थापना सदस्य थे। दिल्ली की‌ सियासत में पहले जनसंघ तथा बाद में भारतीय जनता पार्टी की जड़े जमाने में विजय कुमार मल्होत्रा तथा मदनलाल खुराना की  जमीनी मेहनत तथा सूझबूझ का नतीजा है। हालांकि उनके साथ एक तीसरा नाम केदारनाथ साहनी का जुड़ने का कारण इसको 'तिगड़ी' के नाम से भी जाना जाता था। बंटवारे के बाद दिल्ली में बस गए शरणार्थियों के समर्थन के साथ-साथ दिल्ली में एक और दूसरी लाबी कंवरलाल गुप्ता, चरती लाल गोयल इत्यादि के नेतृत्व में दिल्ली के बनियों को जनसंघ के साथ जोड़ने में लगी थी। प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा को विजय जी के नाम से पुकारा जाता था। 

उनसे मेरा परिचय 1966 में ही हो गया था। 1966 में दिल्ली में पहले गौ रक्षा आंदोलन चला था, जिसके जुलूस पर गोली चलने के कारण कई साधु मारे गए थे। उसके कारण जनसंघ के लोग दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे, जिसमें विजय मल्होत्रा तथा मदनलाल खुराना भी शामिल थे। ‌ उस के तत्काल बाद डॉ राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में हुए छात्र आंदोलन के सिलसिले में, मैं भी दिल्ली की जेल में बंद था। तब मेरा परिचय विजय कुमार मल्होत्रा के साथ हुआ। वह दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बन चुके थे ‌ मैं उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ का उपाध्यक्ष था। बाद में मैं भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक बन गया। समय-समय पर हमारी मुलाकाते होती रही। 1975 में आपातकाल विरोधी आंदोलन में हम एक‌ साथ संघर्ष में शामिल थे। आपातकाल में‌ उनको मीसाबंदी बनाकर ‌ पहले अंबाला जेल तथा बाद में हिसार जेल में‌ भेज दिया।

मैं भी मीसाबंदी होकर‌ पहले दिल्ली की जेल में ‌ बंदी बना,बाद में‌ मुझे भी हिसार जेल में भेज दिया गया। हिसार जेल में ‌ मेरी उनसे घनिष्ठता बढ़ी। हालांकि हमारी अलग-अलग ‌ वैचारिक आस्था थी, ‌ वे कट्टर ‌ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जन संघ के‌ समर्थक थे, मैं सोशलिस्ट विचारधारा‌ मैं यकीन रखता था। मेरी उनसे अक्सर वैचारिक मुद्दों पर बहस भी छिड़ जाती थी, ‌ परंतु बड़ी सौम्यता‌ तथा तथा बिना किसी कड़वाहट के ‌ विचारों का आदान-प्रदान होता रहता था। वह‌ अध्ययनशील,तथा बहुत ही विनोदी स्वभाव के भी थे। चुटकुले सुनाने में तो वे ‌ बेहद माहिर थे। उनके पिताजी‌‌ डा खजान चंद मल्होत्रा एक मशहूर आयुर्वैदिक वैद थे। दिल्ली के हौजकाजी क्षेत्र में विजय फार्मेसी के नाम से उनका दवाखाना था।

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एक बार उन्होंने जेल में चवनप्राश बनाकर हमें खिलाया तथा आयुर्वेद की भी कई‌ गुप्त जानकारियां वे देते रहते थे। जेल में हमारे साथ महावीर सिंह नामक एक कम्युनिस्ट विचारधारा के युवक भी बंदी थे उनके साथ वे घंटो‌ शतरंज खेला करते थे। आपातकाल के कठोर नीरस जेल जीवन में‌ कई रोचक किस्से सुना कर‌ हंसाते रहते थे। उन्होंने एक बार बताया कि मेरी अमृतसर में शादी थी, ‌ उस समय‌ घोड़े पर बैठे हुए दूल्हे‌ के सामने 'सेहरा' पढ़ने का रिवाज होता था,‌ सेहरे में‌ शादी की तिथि, स्थान व पूरे परिवार की खुशियों का जिक्र होता था। भूलवश मेरे परिवार की ओर से सेहरा तैयार नहीं करवाया गया। 

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ऐन वक्त पर‌ सेहरे का ध्यान आया, ‌ किसी ने कहा कि पड़ोस के मकान में एक सेहरा‌ रखा हुआ है वहां से ले आता हूं और इसके अंदर जहां मां-बाप, भाई बहन जीजा, बुआ फूफा या ‌ अन्य रिश्तेदारों के नाम है उसकी जगह पर एक आदमी फटाफट हमारे परिवार के उन नाम को जोड़कर सेहरा पढ देगा। एक ‌ व्यक्ति ने हमारे परिवारों के‌ रिश्तेदारों के नाम ‌ उस सेहरे के नाम के साथ जोड़कर पढ़ने शुरू कर दिए। एक जगह उनके फूफा जी के नाम के सामने लिखा हुआ था की स्वर्ग से फूफा जी आशीर्वाद दे रहे हैं, ‌ ज्योंहि उस आदमी ने मेरे फूफा जी को ‌‌ स्वर्गीय कह कर पढ़ा,‌ हल्ला हो गया, ‌ फूफा जी वहीं खड़े थे। तब गलती पकड़ में आई कि किसी दूसरे के सेहरे को पढ़ते हुए‌ नाम जोड़ दिया गया।

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आपातकाल की समाप्ति के बाद जनसंघ और सोशलिस्ट  पार्टी का विलय होकर‌  जनता पार्टी बन गई। दिल्ली महानगर परिषद (विधानसभा,) कॉरपोरेशन के चुनाव की घोषणा हो चुकी थी। ‌ दिल्ली  चुनाव के ‌लिए ‌ प्रत्याशी ‌ चुनने के लिए बनी समिति‌ का अध्यक्ष उन्हें तथा सचिव मुझे बनाया गया। हालांकि निजी संबंधों में हमारे बहुत मिठास थी, ‌ परंतु राजनीतिक‌ हितों की दृष्टि से‌ वे बहुत चतुर और कठोर थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि आप कौन से चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहेंगे, ‌‌ आपको तो एडजस्ट ‌ हमे करना ही है, मैं अचंभित था, ‌ मुझे लग रहा था कि हमारे घटक को भी ‌ काफी सीटें ‌ चुनाव लड़ने के लिए मिलेंगी। मैंने उनसे कहा विजय जी‌ विधानसभा की 70 सीटों मे से 10 ‌ सीटें हमें मिलनी चाहिए, तब उनका असली राजनीतिक ‌ दलबंदी का चेहरा मेरे सामने आ गया‌। वह समझ रहे थे‌ कि मुझे मेरी मन माफिक सीट देने के लालच में, ‌ मैं उनकी सूची को स्वीकार कर लूंगा। 

मैंने एक लंबी सूची उनके सामने अपने संगठन की ओर से ‌ पेश कर दी, ‌ तब पहली बार हमारा उनका ‌ तनाव हुआ। उन्होंने कहा यह तो हो ही नहीं सकता, ‌ सोशलिस्टों का दिल्ली में कोई प्रभाव नहीं, तो‌ मैंने कहा विजय जी यह जनता पार्टी है जनसंघ नहीं, ‌ हमारा भी उतना ही अधिकार है। मैंने कहा ठीक है, मैं अपने नेताओं को इसकी खबर दे दूंगा। अंत में‌ बड़ी जद्दोजहद के बाद ‌ छह उम्मीदवार विधानसभा में ‌ टिकट पा सके और विजयी हुए। मैं विधानसभा में मुख्य सचेतक बनाया गया। जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता के सवाल पर जब मधु लिमए ने‌ सवाल उठाया ‌ तो पार्टी में विभाजन हो गया। हमारे सभी सोशलिस्ट सदस्य जनता पार्टी छोड़कर लोकदल‌ मैं शामिल हो गए। 

विजय जी ने मित्रता के नाते मुझे बहुत समझाया कि आप हमारे साथ रहो, चांदनी चौक में तो वैसे भी आप लोकदल से चुनाव नहीं जीत सकते, हम हमेशा आपका ख्याल रखेंगे‌। परंतु ‌ मुझे किसी भी कीमत पर यह स्वीकार नहीं था। पुरानी कांग्रेस तथा अन्य दलों के जो भी मेंबर चुनकर गए थे उनमें से अधिकतर भाजपा में ही शामिल हो गए तथा वह अंत तक किसी न किसी सदन के सदस्य बने रहे।

विजय जी ‌का बहुत ही सभ्य, शिक्षित,‌ सौम्य‌ व्यक्तित्व था, ‌ हालांकि वे रिजर्व स्वभाव के थे। कई बार वे टेलीफोन कर हाल-चाल पूछते थे और मिलने के लिए इसरार करते थे। ‌नरेंद्र मोदी के शासनकाल में उनकी वरीयता को‌ जानबूझकर नजरअंदाज किया गया,‌ हालांकि ‌ यह उनका दलीय मामला है। उनके जाने से दिल्ली में भाजपा का पैर जमाने‌‌ वाला एक मजबूत खंबा ढह‌ गया है। 

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