विनोबा विचार प्रवाह! एकवर्षीय मौन साधना का 291 वां दिन
कर्तव्य परायण शिक्षक स्वत:सिद्ध शिक्षण केंद्र है उसके समीप बैठना ही शिक्षा है_ विनोबा।
शिक्षकों को पहले आचार्य ही कहा जाता था।आचार्य अर्थात आचारवान। स्वयं आदर्श जीवन का आचरण करते हुए राष्ट्र से उसका आचरण सुंदर ढंग से करा लेनेवाला ही आचार्य होता है। ऐसे आचार्यों के पुरुषार्थ से ही राष्ट्रों का निर्माण हुआ है। हिंदुस्तान की नई रचना ऐसे ही आचारवान शिक्षकों के बिना संभव नहीं। बाबा की प्रमुख चिंता यही थी कि राष्ट्र का सुशिक्षित वर्ग आज निष्प्रभ और अत्यंत निष्क्रिय होता जा रहा है। इसका एक मात्र उपाय राष्ट्रीय शिक्षण की आग सुलगाना ही है। पर वह अग्नि होनी चाहिए। अग्नि की दो शक्तियां मानी गयी हैं। एक स्वाहा और दूसरी स्वधा। ये दोनों शक्तियां जहां हैं वहां अग्नि है।
स्वाहा का अर्थ है_ आत्माहुति देने की,आत्मत्याग की शक्ति। स्वधा का अर्थ है_ आत्म_ धारणा की शक्ति। ये दोनों शक्तियां हमारे राष्ट्रीय शिक्षण में जागृत होनी चाहिए। इन शक्तियों के जागृत होने पर ही वह राष्ट्रीय शिक्षण कहलाएगा। बाकी सब मृत,निर्जीव एवं कोरा शिक्षण है। बाबा कहते थे कि ऊपर_ऊपर से दिखाई देता है कि अब तक हमारे राष्ट्रीय शिक्षकों ने बड़ा आत्मत्याग किया है। बाबा कहते थे कि फुटकर स्वार्थ_त्याग अथवा गर्भित_त्याग के मानी आत्मत्याग नहीं है। उसकी अपनी कसौटी होती है। जहां आत्मत्याग की शक्ति होती है वहां आत्मधारणा की शक्ति भी होती है।
आत्मधारणा की शक्ति अगर न हुई , तो कोई किसलिए त्याग करेगा? जो आत्मा अपने को खड़ा नहीं रख सकता, वह कूदेगा कैसे? मतलब आत्मत्याग की शक्ति में आत्मधारणा पहले से ही शामिल है। यह आत्मधारणा की शक्ति स्वधा राष्ट्रीय शिक्षकों ने अभी तक सिद्ध नहीं की है। इसलिए आत्म_ त्याग करने का जो आभास हुआ,वह आभास मात्र ही है। पहले स्वधा उसके बाद स्वाहा। राष्ट्रीय शिक्षण को अर्थात राष्ट्रीय शिक्षकों को अब स्वधा संपादन की तैयारी करनी चाहिए। शिक्षकों को केवल शिक्षण की भ्रामक कल्पना छोड़कर स्वतंत्र जीवन की जिम्मेदारी,जैसी कि किसानों पर होती है,अपने ऊपर लेनी चाहिए और विद्यार्थियों को भी उसमें उत्तरदायित्व पूर्वक भाग लेकर उसके चारो ओर शिक्षण की रचना करनी चाहिए, अथवा अपने_आप होने देनी चाहिए। इसी में थोड़ा स्वतंत्र समय प्रार्थना स्वरुप वेदाभ्यास के लिए भी रखना चाहिए। प्रत्येक कर्म ईश्वर की उपासना का ही हो, फिर भी सुबह शाम उपासना के लिए देना ही पड़ता है।
यही न्याय वेदाभ्यास अथवा शिक्षण पर लागू करना चाहिए। जीवन की जिम्मेदारी के काम ही दिन के मुख्य भाग में करने चाहिए, और इन सभी को शिक्षण का ही काम समझना चाहिए।साथ ही एक दो घंटे शिक्षण के निमित्त भी देना चाहिए। बाबा बताते थे कि राष्ट्रीय जीवन कैसा होना चाहिए? इसका आदर्श अपने जीवन में उतारना राष्ट्रीय शिक्षक का कर्तव्य है। यह कर्तव्य करने से उसके जीवन में अपने आप उसके आसपास शिक्षा की किरणें फैलेंगी और उन किरणों के प्रकाश से आसपास के वातावरण का काम अपने आप हो जाएगा। इस प्रकार का शिक्षक स्वत:सिद्ध शिक्षण केंद्र है। उसके समीप रहना ही शिक्षण पाना है। मनुष्य को पवित्र जीवन बिताने का ध्यान रखना चाहिए।
शिक्षा की फिक्र रखने के लिए वह जीवन ही समर्थ है। उसके लिए केवल शिक्षण की लालच रखने की जरूरत नहीं। आज श्रद्धेय गौतम भाई जी ने गुरुबोध सार वर्ग में बताया कि बाबा की मां बाबा से कहती थीं कि विन्या कड़क बनो ढीले नहीं। मिट्टी सरल होती है तो उसे हांथ से भी खोद डालते है। इसका सार कहती थीं कि नारियल बनो टमाटर नहीं। फल प्राप्त करने में कुछ परिश्रम करना पड़े, छूते ही फूट जाना यह ठीक नहीं।

