हमारे गांव हों सृष्टिपूजक और शहर हों ग्राम : सेवक विनोबा
विनोबा विचार प्रवाह! एकवर्षीय मौन संकल्प यात्रा का 295 वां दिव
गांवों में बुनियादी चीजें बनेंगी, इस वास्ते ग्रामीण लड़के की तालीम अत्यंत सहज भाव से होगी। और शहरों की बुनियादी चीजें नहीं बनेंगी,गौण चीजें बनेंगी। इस वास्ते वैसी ही तालीम होगी।
बाबा का कहना था कि जो लोग शहरों में रहते हैं,उनकी दृष्टि भी ग्रामोन्मुख रहे,ऐसी तालीम शहर वालों को मिलनी चाहिए। अगर गांव और शहर की तालीम में विरोध रहेगा तो यह विरोध देश के लिए खतरनाक होगा। वैसे तो अगर देखा जाए तो जिंदगी का बहुत_सारा अंश सबके जीवन में समान होता है,चाहें शहर का जीवन देखें या गांव का जीवन देखें। पंचभूतों का तो परिणाम दोनों पर होता है। सृष्टि के साथ सम्पर्क दोनों के लिए लाभदायी है।
आरोग्यशास्त्र की जरूरत दोनों के लिए समान है। हां शहरवालों के लिए एक प्रकार का आरोग्य का इंतजाम और गांव वालों के लिए दूसरे ढंग का इंतजाम होगा। परस्पर सहयोग,प्रेम, त्यागभावना, ये सब धर्मविचार हैं,वे तो दोनों के लिए समान लागू हैं। गांवों में बुनियादी चीजें बनेंगी, इस वास्ते ग्रामीण लड़के की तालीम अत्यंत सहज भाव से होगी। और शहरों की बुनियादी चीजें नहीं बनेंगी,गौण चीजें बनेंगी। इस वास्ते वैसी ही तालीम होगी।
यहां जो गौणता दिखेगी वह तब तक टाली नहीं जा सकती जब तक कि शहरों को भी हम ग्रामों के समान रूप नहीं देते। बाबा से किसी ने प्रश्न पूंछा कि क्या देहात का लड़का स्वाबलंबी होगा, और शहर वाला नहीं होगा। बाबा ने कहा क्यों नहीं होगा? मान लीजिए कि शहर के कोई होटल में रसोई के जरिए बालक को शिक्षण दिया जाता है। शहर में गैस या कोयले पर भोजन पकेगा और गांव में लकड़ी पर पकेगा। दोनों बच्चों को भलाई ही तो सीखनी है।
भूखे के लिए रोटी मुहैया करा देने का शिक्षण दोनों जगह समान मिलना चाहिए। अगर देहात में श्रम की कद्र है और शहर में नहीं तो समझो कि रास्ते भिन्न हैं। बाबा का मानना था कि शहर की तालीम में थोड़ी गौणता जरूर रह जाएगी, उसकी पूर्ति तभी होगी जब शहर वालों का मुख गांवों की तरफ हो और विदेश की जानकारी रखें। उनकी दृष्टि अगर ग्रामोन्मुख रही, तो ग्रामीणों की सेवा करना वे अपना धर्म समझेंगे।बाबा ने तो सूत्र ही बनाया कि ग्रामीण होंगे सृष्टि पूजक या परमेश्वर_ सेवक और शहर के लोग होंगे ग्राम_ सेवक। तो दोनों स्थानों पर विकास होगा। एक दूसरे की पूर्ति में एक दूसरे की मदद देंगे। बाबा कहते थे कि हर गांव में सम्पूर्ण तालीम हो अर्थात हर गांव में विद्यापीठ हो। क्योंकि गांव कितना भी छोटा हो लेकिन वह सारी दुनिया का प्रतिनिधि है और कुल दुनिया थोड़े में वहां मौजूद है। वहां असंख्य प्राणी,पक्षी,पशु के साथ संबंध रहता है इस वास्ते मानव के लिए पूरक ज्ञान की जरूरत है। गांव में शहर से ज्यादा एक दूसरे की निकटता का संबंध आता है। इस वास्ते वहां नीतिशास्त्र और धर्म शास्त्र विकसित हो सकता है।
आत्मा की व्यापकता ,एक दूसरे के साथ सहयोग करने की वृत्ति सत्य निष्ठा इत्यादि जो नीति धर्म हैं,वे ग्राम में अच्छी तरह से प्रकट हैं। बाबा का मानना था कि आजकल के शहरों में व्यास वाल्मीकि की कल्पना ही नहीं कर सकते, उनकी कल्पना गांवों के आसपास कर सकते हैं। पराक्रमी पुरुषों की सेवा गांव में ही मिल सकती है। राष्ट्रों की सेनाओं के सैनिक भी अधिकतर गांव से ही दिखते हैं। यह सब होते हुए भी वहां तालीम देने के संरजाम भी सुंदर बनाए जा सकते हैं। बाबा की तालीम में तो ज्यादा सरंजाम ही नहीं चाहिए। निरीक्षण और प्रयोग ही महत्वपूर्ण है। सबसे जरूरी बात सज्जन और विद्वान गांव में रहना पसंद करें। सत्पुरुषों में ग्रामनिष्ठा बढ़े। तभी काम बनेगा। बाबा कहते थे कि हमारे गांव में परिब्राजक सन्यासी की योजना थी। वह गांव_गांव घूमते रहते थे। और 3_4 माह किसी गांव में रहते भी थे। उसका लाभ गांव वालों को मिलता था। यह सन्यासी सारी दुनिया का और आत्मा का ज्ञान सबको देता ही रहेगा। बाबा कहते थे कि संन्यासी यानी वॉकिंग यूनिवर्सिटी। चलता फिरता विद्यापीठ,जो कि हर गांव में अपनी इच्छा से जायेगा। वह विद्यार्थियों के पास जाकर तालीम देगा। गांव वाले उसे सात्विक,स्वच्छ, निर्मल आहार देंगे। इसके अलावा उन्हें कुछ चाहिए नहीं। ज्ञान प्राप्त करने में अगर हमारे गांव वालों को एक कौड़ी भी खर्च करना पड़े तो इससे ज्यादा दुखदायक बात और कुछ नहीं हो सकती।
जिनके पास ज्ञान होता है,उसको इस बात की अत्यंत प्यास होती है कि वह ज्ञान दूसरों के पास पहुंचे। बच्चे को माता के स्तनपान की जितनी इच्छा होती है,उतनी ही इच्छा माता को बच्चे को स्तनपान कराने की होती है,क्योंकि उसके स्तनों में दूध भगवान ने भर दिया है। कल अगर ऐसा हो जाए कि माताएं बच्चों को फीस लिए बगैर उन्हें दूध नहीं पिलाएगी, तो सोचो दुनिया की क्या हालत होगी?

