भारतीय ज्ञान परंपरा और हिंदी की भूमिका : एक सांस्कृतिक सेतु

नेशनल एक्सप्रेस डिजिटल डेस्क
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डॉक्टर यल कोमुरा रेड्डी की कलम से

भारतीय ज्ञान परंपरा का मूल स्रोत मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में है—जैसे वेद, उपनिषद, दर्शनशास्त्र (न्याय, वैशेषिक),व्याकरण (पाणिनि), चिकित्सा (आयुर्वेद), और गणित (आर्यभट्ट)। ये ग्रंथ गूढ़ और क्लिष्ट होने के कारण आम लोगों की पहुँच से दूर थे।हिंदी का विकास एक ऐसे बदलाव के दौर में हुआ।

भारत की पहचान उसके समृद्ध अतीत, उसके दार्शनिक चिंतन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर टिकी हुई है। इस विराट बौद्धिक विरासत को ही भारतीय ज्ञान परंपरा कहा जाता है,जो सदियों से जीवन,ब्रह्मांड, विज्ञान, कला और धर्म के मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देती रही है। यह परंपरा केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान के लिए एक जीवंत मार्गदर्शन है। इस परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने, इसे जन-जन तक पहुँचाने और आधुनिक संदर्भों से जोड़ने में हिंदी भाषा ने एक अपरिहार्य और केंद्रीय भूमिका निभाई है, जिससे यह ज्ञान का एक शक्तिशाली सांस्कृतिक सेतु बन गई है।

भारतीय ज्ञान परंपरा का मूल स्रोत मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में है—जैसे वेद, उपनिषद, दर्शनशास्त्र (न्याय, वैशेषिक),व्याकरण (पाणिनि), चिकित्सा (आयुर्वेद), और गणित (आर्यभट्ट)। ये ग्रंथ गूढ़ और क्लिष्ट होने के कारण आम लोगों की पहुँच से दूर थे।हिंदी का विकास एक ऐसे बदलाव के दौर में हुआ, जब ज्ञान को राजभाषाओं के घेरे से बाहर निकालकर लोकभाषाओं में विस्तारित करने की आवश्यकता थी।

लोकभाषा के रूप में ज्ञान का वाहक:आदिकाल से रीतिकाल तक

हिंदी ने, जो संस्कृत की उत्तराधिकारी और विभिन्न स्थानीय बोलियों (अवधी, ब्रज, खड़ी बोली) के समन्वय से बनी, इस ज्ञान को जन-साधारण की भाषा में ढालने का सबसे बड़ा कार्य किया। हिंदी साहित्य के आरंभ से ही यह प्रवृत्ति दिखाई देती है:

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चंदबरदाई की 'पृथ्वीराज रासो' (आदिकाल) ने वीर गाथाओं और तत्कालीन राजपूती संस्कृति के मूल्यों को पिंगल (ब्रज मिश्रित राजस्थानी हिंदी) भाषा के माध्यम से संजोया, जिससे लोक में शौर्य और राष्ट्रीयता की भावना का संचार हुआ।

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अमीर खुसरो ने खड़ी बोली हिंदी में अपनी पहेलियाँ और मुकरियाँ रचकर गूढ़ बातों और लोक जीवन के अनुभवों को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया, जो भा.ज्ञा.प. के लोक पक्ष का एक अद्भुत उदाहरण है।

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भक्ति काल (14वीं से 17वीं शताब्दी) इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।

तुलसीदास ने संस्कृत के जटिल 'रामचरितमानस' को अवधी (हिंदी की एक बोली) में रचकर रामकथा और भारतीय धर्मशास्त्र के मूल्यों को घर-घर पहुँचाया।

कबीर ने अपनी रचनाओं के संग्रह 'बीजक' (साखी,सबद,रमैनी) के माध्यम से उच्चतम दार्शनिक विचारों (निर्गुण ब्रह्म, सामाजिक समता) को सरल 'सधुक्कड़ी' भाषा में अभिव्यक्त किया, जो अनुभव-जन्य सत्य पर आधारित ज्ञान परंपरा का उद्घोष था।

सूरदास ने 'सूर सागर' में ब्रजभाषा के माध्यम से शुद्धाद्वैत दर्शन के सगुण रूप श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं और भक्ति-प्रेम का ऐसा चित्रण किया कि गूढ़ दार्शनिक तत्त्व सहज माधुर्य में ढलकर लोक को प्राप्त हो गए।

मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' को अवधी में रचकर, लौकिक प्रेम कथा के माध्यम से अलौकिक सूफी दर्शन और भारतीय संस्कृति (जैसे जौहर, तत्कालीन रीति-रिवाज) का गहन समन्वय प्रस्तुत किया।

केशवदास ने 'रामचंद्रिका' (रीतिकाल)की रचना ब्रजभाषा में करके, संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ज्ञान (छंदों का वैविध्य) को हिंदी में स्थापित किया, जिससे ज्ञान परंपरा का कलात्मक और पांडित्यपूर्ण पक्ष भी अक्षुण्ण बना रहा।

इन रचनाओं के माध्यम से हिंदी ने साहित्य, धर्म और दर्शन के इस विशाल भंडार को लिपिबद्ध करके मौखिक परंपरा के टूटने पर भी ज्ञान की धारा को निरंतर प्रवाहित रखा। हिंदी ने गूढ़ तत्त्वज्ञान को 'लोक' के अनुभव से जोड़कर उसे सार्वभौमिक और व्यावहारिक बना दिया।

आधुनिक शिक्षा, शोध और विमर्श में हिंदी की भूमिका

स्वतंत्रता के पश्चात्, हिंदी को राजभाषा का पद प्राप्त हुआ और इसके साथ ही, भारतीय ज्ञान को आधुनिक शिक्षा प्रणाली में एकीकृत करने का दायित्व भी इस पर आया। हिंदी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और आज भी यह भारतीय ज्ञान परंपरा के शोध और शिक्षण का एक प्रमुख माध्यम है:

आधुनिक काल के कवियों का योगदान: भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामधारी सिंह 'दिनकर' जैसे आधुनिक हिंदी कवियों और लेखकों ने भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन और राष्ट्रीय चेतना पर आधारित रचनाएँ कीं। इन रचनाओं ने प्राचीन गौरव, त्याग और सामाजिक मूल्यों के ज्ञान को आधुनिक युग के संदर्भों से जोड़कर, राष्ट्रीय विमर्श को मजबूत किया।

अनुवाद और टीकाएँ: संस्कृत,पाली,प्राकृत और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे गए प्राचीन ग्रंथों के प्रामाणिक अनुवाद, भाष्य और टीकाएँ हिंदी में उपलब्ध हैं।ये टीकाएँ न केवल मूल पाठ का अर्थ बताती हैं,बल्कि आधुनिक संदर्भों में उनकी प्रासंगिकता भी स्पष्ट करती हैं।

विश्वविद्यालयी शिक्षा: भारतीय दर्शन, इतिहास, राजनीति विज्ञान, और कला जैसे विषयों का शिक्षण हिंदी माध्यम से बड़ी संख्या में छात्रों तक पहुँचता है, विशेष रूप से देश के विशाल हिंदी पट्टी क्षेत्र में। हिंदी पाठ्यपुस्तकें और संदर्भ ग्रंथ इन विषयों की गहरी समझ विकसित करने में सहायक होते हैं।

राष्ट्रीय विमर्श: हिंदी देश की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा होने के कारण, यह राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक, सामाजिक और बौद्धिक विमर्श का केंद्र है। योग,आयुर्वेद, और भारतीय कलाओं पर हो रहे आधुनिक शोधों और संवादों को हिंदी के माध्यम से ही अधिकतम लोगों तक पहुँचाया जाता है।

भविष्य की संभावनाएँ और चुनौतियाँ

आज जब वैश्विक स्तर पर भारतीय ज्ञान को महत्त्व दिया जा रहा है, तब हिंदी की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। हिंदी को तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली को आत्मसात करते हुए प्राचीन ज्ञान को अंकीय (डिजिटल) मंचों पर उपलब्ध कराना होगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ज्ञान की यह परंपरा केवल साहित्य तक सीमित न रहे, बल्कि विज्ञान, पर्यावरण, प्रबंधन और अर्थशास्त्र जैसे आधुनिक विषयों में भी हिंदी के माध्यम से भारतीय दृष्टिकोण को स्थापित किया जाए।

संक्षेप में, हिंदी भारतीय ज्ञान परंपरा की आत्मा को वर्तमान शरीर से जोड़ने वाली रक्त-शिरा है। यह केवल एक भाषा नहीं, बल्कि उस राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक है जो अपने अतीत से शक्ति लेकर भविष्य की ओर अग्रसर है। हिंदी की सुदृढ़ता ही हमारी बौद्धिक विरासत की निरंतरता की गारंटी है।